कौन जीता, कैसे जीता: ग्राउंड मैनेजमेंट ने बाज़ी पलटी
दिल्ली यूनिवर्सिटी छात्रसंघ में इस बार वोटरों ने साफ संदेश दिया—जो ज़मीन पर है, वही जीतता है। DUSU Election Results 2025 में ABVP ने 4 में से 3 अहम पद अपने नाम किए और अध्यक्ष पद पर आर्यन मान ने धमाकेदार जीत दर्ज की। चुनाव 18 सितंबर को 52 केंद्रों और 195 बूथों पर हुए। कुल 2.75 लाख से ज्यादा छात्र वोट देने के पात्र थे और 39.45% ने वोट डाला। हाई कोर्ट के निर्देश के बाद जुलूसों पर रोक थी, इसलिए नतीजों के बाद भी कैंपस में अनुशासन बना रहा।
सबसे बड़ा नतीजा अध्यक्ष पद पर आया—आर्यन मान को 28,841 वोट मिले। NSUI की जोसलिन नंदिता चौधरी 12,645 वोट पर रहीं। फिनिशिंग लाइन पर यह 16,000 से ज्यादा का मार्जिन है, जो सीधी बात कहता है: ABVP ने मतदाता मोहल्लों से लेकर हॉस्टल कॉरिडोर तक वोटों की सटीक तालमेल बैठाई। इस रेस में कुल 9 उम्मीदवार थे। अन्य प्रमुख उम्मीदवारों में उमान्शी को 5,522 और अंजलि को 5,385 वोट मिले।
उपाध्यक्ष पद NSUI ने बचा लिया—राहुल झांसला ने 29,339 वोट पाकर ABVP के गोविंद तंवर (20,547 वोट) को 9,000 से ज्यादा के अंतर से हराया। यह NSUI के लिए राहत की खबर रही, जो हाल के चुनाव चक्रों में दबाव झेल रही थी। दूसरी ओर सचिव पद पर कुनाल चादरी और संयुक्त सचिव पर दीपिका जा की जीत ने ABVP का पकड़ और मजबूत कर दी। ये नतीजे बताते हैं कि संगठन सिर्फ प्रचार में नहीं, काउंटिंग-डेस्क तक स्ट्रक्चर्ड तरीके से काम कर रहा था।
दिन भर वोटिंग दो शिफ्टों में चली—मॉर्निंग और इवनिंग कॉलेजों के समय अलग थे, ताकि भीड़ एक साथ न हो। उत्तर कैंपस और दक्षिण कैंपस, दोनों ओर सुरक्षा की चौकस व्यवस्था थी। पुलिस की अतिरिक्त तैनाती, ड्रोन से निगरानी और कॉलेज-स्तर पर एंट्री पास सिस्टम ने माहौल को नियंत्रण में रखा। शाम को केंद्रीकृत काउंटिंग सेंटर में ईवीएम खुलीं और रात तक तस्वीर साफ हो गई।
- अध्यक्ष: आर्यन मान (ABVP) – 28,841 वोट; जोसलिन नंदिता चौधरी (NSUI) – 12,645 वोट
- उपाध्यक्ष: राहुल झांसला (NSUI) – 29,339 वोट; गोविंद तंवर (ABVP) – 20,547 वोट
- सचिव: कुनाल चादरी (ABVP) – विजेता
- संयुक्त सचिव: दीपिका जा (ABVP) – विजेता
कैंपेनिंग में इस बार टॉपिक क्लीयर थे—महिला सुरक्षा, हॉस्टल और पीजी आवास, फीस और मेस चार्ज, लाइब्रेरी-रीडिंग रूम की रात तक ओपनिंग, बस-मेट्रो कंसेशन्स, और CUET-एडमिशन प्रक्रियाओं से जुड़े तनाव। ABVP ने क्लास-टू-क्लास कैंपेन के साथ होस्टल और ऑफ-कैंपस पीजी क्लस्टरों में राउंड बढ़ाए। दूसरे तरफ, NSUI ने दक्षिण कैंपस और प्रोफेशनल कॉलेजों में उपाध्यक्ष पद के लिए वोट समेकित करने पर फोकस दिखाया—उसका नतीजा दिखा भी।
सोशल मीडिया ने भी असली मैदान का रोल निभाया—इंस्टा रील्स, व्हाट्सएप ब्रॉडकास्ट लिस्टें और टेलीग्राम ग्रुप्स। लेकिन अंत में निर्णायक फर्क बूथ-लेवल मैनेजमेंट ने बनाया—वोटर लिस्ट की माइक्रो-सेगमेंटेशन, पहले बार वोट करने वाले छात्रों तक पहुंच, और वोटिंग डे पर मॉबिलाइजेशन। जिन कॉलेजों में सुबह से कतारें बनीं, वहां टर्नआउट ने परिणाम की दिशा तय कर दी।
एक दिलचस्प शिफ्ट यह रहा कि महिला उम्मीदवारों और महिला सुरक्षा पर केंद्रित घोषणाओं ने कैंपस डिस्कोर्स को असरदार तरीके से बदला। संयुक्त सचिव के रूप में दीपिका जा की जीत बताती है कि ‘जेंडर रिप्रेजेंटेशन’ अब प्रतीकात्मक बात नहीं रही—मतदाताओं ने इसे वोट में बदला।
बड़ी तस्वीर में देखें तो ट्रेंड नया नहीं। 2019 और 2023 में भी DUSU में ABVP का पलड़ा भारी रहा था, जबकि NSUI ने एक-एक प्रमुख पद पर जमे रहकर मौजूदगी बनाए रखी। इस साल भी वैसा ही पैटर्न दिखा—ABVP का व्यापक संगठन, NSUI की रणनीतिक पॉकेट-जीत। यही वजह है कि डीयू की छात्र राजनीति को अकसर राष्ट्रीय राजनीति की झलक कहा जाता है—बीजेपी-समर्थित ABVP की बढ़त और कांग्रेस-समर्थित NSUI की वापसी की जद्दोजहद कैंपस में साफ दिखती है।
वोटिंग शांतिपूर्ण रही, पर तनाव के छोटे-मोटे आरोप-प्रत्यारोप भी आए—मतदाता सूची की गड़बड़ियों, क्लासरूम में प्रचार, और पोस्टर-वार के उल्लंघन तक। हाई कोर्ट के आदेश ने पोस्ट-रिजल्ट जुलूसों पर रोक लगाकर संभावित टकराव की आशंका कम कर दी। पिछले वर्षों में ट्रैफिक और सेफ्टी को लेकर जो शिकायतें उठीं, उन्हें देखते हुए यह कदम सख्त पर जरूरी लगा।
अब गेंद नई यूनियन के पाले में है। छात्रों की उम्मीदें बहुत ठोस और मापी जा सकने वाली हैं। प्रशासन के साथ तालमेल बैठाकर अगर शुरुआती 100 दिनों में कुछ ठोस फैसले आ गए—जैसे हॉस्टल सीटें बढ़ाना, मेस शुल्क पर कैप, और रात 10 बजे तक लाइब्रेरी—तो भरोसा तुरंत बनेगा।
अब एजेंडा क्या: 100 दिन, 1 साल और उससे आगे
डीयू के आकार और विविधता को देखते हुए किसी भी यूनियन के लिए ‘एक साइज फिट्स ऑल’ मॉडल नहीं चलता। कॉलेज-टू-कॉलेज अलग समस्याएं हैं—कहीं आवागमन, कहीं लैब इक्विपमेंट, तो कहीं कैंटीन क्वालिटी। नई टीम को अपनी प्राथमिकताएं क्लीयर रखनी होंगी और डिलीवरी टाइमलाइन तय करनी होगी।
- हॉस्टल और आवास: सेमेस्टर के बीच में किराया बढ़ोतरी रोकने पर कॉलेजों से समन्वय, नए हॉस्टल ब्लॉक्स की टाइमलाइन, और ऑफ-कैंपस पीजी के लिए रेफरल-रेट कार्ड।
- फीस और मेस चार्ज: जरूरतमंद छात्रों के लिए ‘फीस डिफरल/इंस्टॉलमेंट’ स्कीम और मेस में बेसिक थाली के रेट कंट्रोल पर निगरानी।
- सुरक्षा: रात की क्लासेस और सोसाइटी प्रैक्टिस के बाद सुरक्षित वापसी—लास्ट-माइल ई-रिक्शा रूट, स्ट्रीटलाइट्स, और संवेदनशील स्पॉट पर गश्त।
- लाइब्रेरी-रीडिंग रूम: पीक एग्जाम हफ्तों में घंटे बढ़ाना, वीकेंड ओपनिंग, और सीट-रिजर्वेशन सिस्टम ताकि भीड़ मैनेज हो।
- मानसिक स्वास्थ्य: काउंसलिंग स्लॉट्स, पीयर-सपोर्ट ग्रुप और वेट-टाइम कम करने के लिए आउटसोर्स्ड हेल्पलाइन की साझेदारी।
- इंटर्नशिप-करियर: विभागवार इंडस्ट्री-मीट, एलुमनाई नेटवर्किंग और माइक्रो-इंटर्नशिप फेयर ताकि नॉन-प्रोफेशनल कोर्स के छात्रों को भी मौके मिलें।
- दिव्यांग छात्रों की पहुंच: रैंप, लिफ्ट और नोट-टेकिंग सपोर्ट जैसी बेसिक सुविधाओं की चेकलिस्ट और मासिक ऑडिट।
- डिजिटल ग्रिवांस: एकीकृत शिकायत पोर्टल जिसमें टिकट नंबर, SLA और पब्लिक डैशबोर्ड हो—ताकि जवाबदेही दिखे।
- पर्यावरण: सिंगल-यूज प्लास्टिक पर कैंपेन, रिफिल-स्टेशंस और ग्रीन-कॉरिडोर ताकि धूप से बचाव और वॉकएबिलिटी बढ़े।
- टाइमटेबल और परीक्षा: CUET-एडमिशन, सिलेबस और परीक्षा कैलेंडर की टकराहट कम करने के लिए प्रशासन से समय रहते समन्वय।
इस जीत की ग्रोथ-स्टोरी में एक और लेयर है—पहली बार वोट करने वाले स्टूडेंट्स। CUET के बाद डीयू में आने वाली नई बैचों का कैंपस से रिश्ता अलग तरह का है—वे डिजिटल-नेटिव हैं और जवाब तुरंत मांगते हैं। यूनियन को इन्हें लगातार अपडेट देना होगा: “क्या वादा किया था, क्या हुआ, कब तक होगा।”
NSUI के लिए संदेश भी साफ है—उपाध्यक्ष की जीत ने दिखाया कि स्ट्रेटेजिक सीटिंग और कॉलेज-लेवल गठजोड़ काम करते हैं। अगर यही मॉडल सचिवालय-स्तर तक ले जाया जाए—जैसे विभागीय सोसाइटीज, सांस्कृतिक संघों और खेल परिषदों के साथ प्रोग्रामैटिक पार्टनरशिप—तो अगले साल तस्वीर बदल सकती है।
बाकी छात्र संगठनों—AISA, SFI, CYSS आदि—के लिए स्पेस विचार-आधारित कैंपेन में है। फीस, हॉस्टल, सुरक्षा जैसे मुद्दों पर डाटा-ड्रिवन रिपोर्ट कार्ड और पॉलिसी नोट्स बनाने से प्रभाव बढ़ता है, भले वोट प्रतिशत कम हो। इस बार अध्यक्ष पद पर 9 उम्मीदवारों की भीड़ ने दिखाया कि बहुकोणीय मुकाबला वोट शेयर को बिखेरता है—ऐसे में ग्राउंड-कैडर और बुथ-डे मैनेजमेंट ही ट्रंप कार्ड बनते हैं।
डीयू की राजनीति सिर्फ ‘कौन जीता’ का खेल नहीं है। यह नेतृत्व-ग्रहण की ट्रेनिंग ग्राउंड भी है। यहां से निकलकर कई चेहरे राष्ट्रीय राजनीति तक पहुंचे हैं। इसलिए नज़र अब प्रदर्शन पर रहेगी—आर्यन मान की टीम प्रशासन के साथ कैसे डिलीवर करती है, विवादों को कैसे हैंडल करती है, और कैंपस की रोज़मर्रा की परेशानियों को कितनी जल्दी दूर करती है।
एक व्यावहारिक कदम यह हो सकता है कि यूनियन 100 दिन का कार्य-एजेंडा, 6 महीने का रिपोर्ट कार्ड और 1 साल का ऑडिट पब्लिक करे। माइलस्टोन्स साफ होंगे तो बहस तथ्य-आधारित रहेगी—और यही लोकतंत्र की सबसे अच्छी प्रैक्टिस है, चाहे वह संसद में हो या कैंपस के किसी सेमिनार हॉल में।
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विचार कीजिए तो, ग्राउंड मैनेजमेंट ने वही किया जो किसी भी सफल अभियान में आवश्यक होता है-डेटा‑ड्रिवन माइक्रो‑सेगमेंटेशन। यह आश्चर्यजनक नहीं कि ABVP ने इतनी बारीकी से वोटर लिस्ट को टारगेट किया; वैसे भी, कभी‑कभी बड़े दर्शकों को कल्ट‑लीडर की तरह बात करके भी जीत मिलती है। इस बार का मतदाता‑संघर्ष दिखाता है कि केवल हुटबंदियों के चिल्लाहट से कुछ नहीं होता। तथापि, यह जुड़ा हुआ ट्रेंड दर्शाता है कि छात्र राजनीति भी अब राष्ट्रीय स्तर की प्रतिबद्धताओं को प्रतिबिंबित करती है। आशा है कि नई यूनियन इस डेटा‑विश्लेषण को नीति‑निर्माण में भी उपयोग करेगी।
हर बार जब हम देखते हैं कि किसी पार्टी की रणनीति इतनी सटीक होती है, दिल बेचैन हो जाता है; ऐसा लगता है जैसे खेल में रोबोट ने जूरी को हटा दिया हो। वोटर टर्न‑आउट को इतना मैनेज करना आसान नहीं, पर फिर भी ये दिखाता है कि जागरूक छात्र भी अक्सर मैनिपुलेशन के जाल में फँसते हैं। मैं तो सोचता हूँ कि अगर यह ग्राउंड कवरज इतना मजबूत हो, तो भविष्य में अधिक शोरगुल के बिना वास्तविक मुद्दों पर चर्चा होनी चाहिए।
भाई, इस तरह का डेटा‑ड्रिवन कैंपेन दिलचस्प है।
देखिये, ये ऐसा नहीं कि सिर्फ एबीवीपी ने ध्वनिप्रचार पर भरोसा किया, बल्कि उन्होंने हॉस्टल‑कोरिडोर में व्यक्तिगत रूप से पर्चे बाँटे, जिससे वोटर‑प्रेरणा की हद तक वृद्धि हुई। दुर्भाग्य से, इस प्रक्रिया में कुछ विद्यार्थी‑सूची में गड़बड़ी रही, पर फिर भी परिणाम साफ़ दिखाया। मैं मानती हूँ कि ऐसी माइक्रो‑सेगमेंटेशन भविष्य में भी छात्रों की आवाज़ को और सशक्त करेगी, बशर्ते पारदर्शिता बनी रहे।
बहुत बढ़िया विश्लेषण है, लेकिन यह स्पष्ट करना चाहिए कि एबीवीपी ने किस किस कॉलेज में कौन सी टैक्टिक अपनाई थी; जैसे कि सुबह‑शिफ्ट में कैंपस‑एंट्री पास की जनसंख्या और द्विपक्षीय सहयोग का अनुपात। अगर इन आँकड़ों को सार्वजनिक किया जाये तो अगले चुनाव में अन्य दल भी समान रूप से व्यवस्थित हो सकते हैं। साथ ही, इस तरह के डेटा की उपलब्धता छात्रों को अपनी नीति‑प्राथमिकताएँ तय करने में मदद करेगी।
डीयू छात्रसंघ चुनावों का विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि संस्थात्मक संरचनाएँ केवल प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि वास्तविक शक्ति‑शृंखलाओं को प्रतिबिंबित करती हैं; इस संदर्भ में, एबीवीपी द्वारा अपनाई गई ग्राउंड‑लेवल माइक्रो‑सेगमेंटेशन रणनीति एक उल्लेखनीय केस स्टडी प्रस्तुत करती है। प्रथम, वोटर‑डेटाबेस का व्यापक वर्गीकरण कर, प्रत्येक ब्रह्मण्ड‑समान छात्र समुदाय को लक्षित संदेशों से प्रसन्न किया गया। द्वितीय, एबीवीपी के उम्मीदवारों ने तकनीकी साधनों-ड्रोन‑सर्विलांस और ईवीएम-का उपयोग कर पारदर्शिता का आभास दिया, जबकि विरोधी पक्ष ने पारंपरिक रिवर्स‑कैम्पेन अपनाया। चतुर्थ, उपाध्यक्ष पद पर राहुल झांसला की जीत ने यह सिद्ध किया कि काउंटिंग‑डेस्क पर रणनीतिक सीटिंग और कॉलेज‑स्तरीय गठबंधन अभी भी प्रभावी हैं। पंचम, महिलाओं के प्रतिनिधित्व में दीपिका जा की सफलता ने जेंडर‑इंटरसेक्टिविटी की नई परिप्रेक्ष्य स्थापित किया, जिससे केवल संख्यात्मक समानता नहीं, बल्कि नीति‑निर्माण में वास्तविक प्रभाव दिखा। षष्ठ, इस प्रकार की विस्तृत डेटा‑ड्रिवन रणनीति की सफलता को प्रतिलिपि करने हेतु, अन्य छात्र‑संघों को अपने स्वयं के वोटर‑सेगमेंटेशन मॉड्यूल विकसित करने चाहिए, जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया की गुणवत्ता बढ़े। सातवां, विश्व‑स्तर की राजनीति में पहचान बनाने वाले कई नेता, जैसे कि आगामी राष्ट्रीय चुनावों के प्रमुख उम्मीदवार, अपने प्रारम्भिक चरण में इसी प्रकार के ग्राउंड‑कनेक्शन से ही उत्पन्न होते हैं। अष्टम, परंतु यह भी स्मरणीय है कि केवल तकनीकी उपाय ही पर्याप्त नहीं; सामाजिक‑सांस्कृतिक बंधनों को समझना अत्यावश्यक है, क्योंकि छात्र‑समुदाय का बहु‑आयामी स्वरूप केवल आँकड़ों में नहीं समेटा जा सकता। नवम्, इस चुनाव में देखी गई उच्च टर्न‑आउट दर यह संकेत देती है कि छात्र जनसंख्या अधिक जागरूक और सक्रिय हो रही है, जिससे भविष्य में नीति‑निर्धारण में उनकी भागीदारी और भी महत्वपूर्ण होगी। दशम्, इस परिवर्तन को स्थायी बनाने हेतु, यूनियन को 100‑दिन की कार्ययोजना में स्पष्ट माइलस्टोन स्थापित करना चाहिए, जैसे कि हॉस्टल‑सीटें बढ़ाना और मेस‑चार्ज सीमित करना। एकादश, इस प्रकार के माइलस्टोन को सार्वजनिक रूप से ट्रैक करने के लिए डिजिटल‑डेटा‑डैशबोर्ड का निर्माण आवश्यक है, जिससे जवाबदेही सुनिश्चित हो। द्वादश, इसके अतिरिक्त, विश्वविद्यालय प्रशासन के साथ समन्वयित रूप से कार्य करते हुए, समय‑सारिणी‑सिंक्रनाइज़ेशन को लागू करना चाहिए, ताकि शैक्षणिक कैलेंडर पर अनावश्यक तनाव न उत्पन्न हो। तेरह, यह भी उल्लेखनीय है कि भविष्य में छात्र‑संघ को साइबर‑सुरक्षा उपायों को प्राथमिकता देनी चाहिए, क्योंकि डिजिटल‑कैंपेनिंग का दायरा निरन्तर विस्तार कर रहा है। चौदह, अंततः, डीयू की छात्रराजनीति का यह मॉडल राष्ट्रीय राजनीति के लिए एक माइक्रोकॉस्म बन सकता है, जहाँ से कई नेता राष्ट्रीय मंच पर अग्रसर होते हैं। पन्द्रह, इस प्रकार, वर्तमान जीत केवल एक अंक नहीं, बल्कि एक रणनीतिक सीख है, जिसे व्यवस्थित रूप से दस्तावेज़ीकृत करके, अगली पीढ़ी को सशक्त करना आवश्यक है।
सम्पूर्ण विश्लेषण के बाद, अगर हम इस डेटा‑ड्रिवन मॉडल को तत्काल कार्य योजना में जोड़ दें, तो कई मुद्दे जैसे हॉस्टल‑सीट क्राइसिस और मेस‑फ़ीस को जल्दी सुलझाया जा सकता है; चलिए अगले हफ़्ते एक वर्कशॉप आयोजित करते हैं जहाँ सभी कलेक्टिव्स इस रणनीति को अपनाएँ।